निदा फाज़ली सा. का अंदाज़-ए-बयाँ ही कुछ और था - गहरी बात सरलता से कहने की उनकी अप्रतिम खूबी मुझे उनके लाखो चाहने वालो में से एक बनती है - खुद मेरी भी पहली बार पढ़ी हुई इस गज़ल का लुत्फ़ उठाइए इस रविवार :-)
जब से क़रीब हो के चले ज़िंदगी से हम
ख़ुद अपने आइने को लगे अजनबी से हम
कुछ दूर चल के रास्ते सब एक से लगे
मिलने गए किसी से मिल आए किसी से हम
मिलने गए किसी से मिल आए किसी से हम
अच्छे बुरे के फ़र्क़ ने बस्ती उजाड़ दी
मजबूर हो के मिलने लगे हर किसी से हम
शाइस्ता महफ़िलों की फ़ज़ाओं में ज़हर था
ज़िंदा बचे हैं ज़ेहन की आवारगी से हम
(शाइस्ता - सभ्य, शिष्ट)(फ़ज़ाओं - वातावरण, माहौल)(ज़ेहन - मन, विचार,सोच)
ज़िंदा बचे हैं ज़ेहन की आवारगी से हम
(शाइस्ता - सभ्य, शिष्ट)(फ़ज़ाओं - वातावरण, माहौल)(ज़ेहन - मन, विचार,सोच)
अच्छी भली थी दुनिया गुज़ारे के वास्ते
उलझे हुए हैं अपनी ही ख़ुद-आगही से हम
(ख़ुद-आगही : अपने आप को समझना, आत्म-मंथन)
उलझे हुए हैं अपनी ही ख़ुद-आगही से हम
(ख़ुद-आगही : अपने आप को समझना, आत्म-मंथन)
जंगल में दूर तक कोई दुश्मन न कोई दोस्त
मानूस हो चले हैं मगर बम्बई से हम
(मानूस : जिसकी घबराहट दूर हो गयी हो, मुहब्बत करनेवाला)----------------------------------------------- निदा फाज़ली सा.
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